योग


योग, अष्टांगयोग, सांख्ययोग, कर्मयोग, सिद्धियोग, ब्रह्मयोग, समाधियोग, नामसंकीर्तनयोग, आत्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग, ध्यानयोग, पाशुपतयोग, ब्रह्मचर्ययोग, क्रियायोग, हठयोग, ऋजुयोग, मन्त्रयोग, गीतायोग, राजयोग एवं प्रेमयोग और भी शायद कई शब्द या अभिव्यक्तियों योग शब्द के साथ जुड़ी हुई पायी जाती हैं।

अनेक संतों, महात्माओं, योगियों और साधकों ने अपने-अपने अनुभव और लाभ को योग के साथ जोड़कर जनहित में समयानुसार एक नया नाम दिया और वह समय-समय पर प्रचलित भी हुआ। कुछ नाम दीर्घकाल तक स्मृति में रहे और कुछ अल्पकाल में ही विस्मृत हो गये। वर्तमान की भाँति पूर्व में प्रचार व संचार के इतने साधन उपलब्ध नहीं थे। एक साधक योगी स्वयं ही या कुछ षिष्यों के साथ प्रचार-प्रसार करते थे। लाखों वर्ष से भारतीय वैदिक शाष्वत् सनातन ज्ञान की परम्परा को पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तान्तरित करते रहना, उसमें अपने अनुभव और प्रयोगां से निखार लाना, ग्रन्थों-षास्त्रों और पुस्तकों के रूप में प्रकाषित करना, यह सरल कार्य नहीं था किन्तु साधकों का विद्या के प्रति अनन्य लगाव, विष्वास, भक्ति, लगन और समाज के प्रति स्नेह व दायित्व, जनकल्याण का संकल्प उन्हें समस्त बाधाओं से पार करके उनके लिये मार्ग सुलभ कराता गया।

वर्तमान समय में भौतिक व्याधियाँ अधिक फैली हुई हैं। भौतिकता का युग है। जो कुछ भी व्यक्तिगत या सामाजिक जीवन में घटित हो रहा है, वह किसी न किसी रूप में भौतिकता के संदर्भ में हैं। आज योग की भी यही स्थिति है। केवल शारीरिक व्यायाम को योग के नाम से प्रसारित-प्रचारित किया जा रहा है। निष्चित रूप से व्यायाम के नित्य अभ्यास से शारीरिक लाभ प्राप्त होता है, कुछ मानसिक लाभ भी होता है किन्तु यदि आरम्भ से ही योग प्रषिक्षण में अष्टांग योग-योग विद्या के आठों अंगों का समावेष कर दिया जाता तो शायद आज विष्व चेतना अधिक सतोगुणी और सकारात्मक होती। मानव जीवन में दुःख, समस्यायें, कठिनाईयाँ, परस्पर विवाद, आतंक जैसी नकारात्कमायें कम होती। कलिकाल का कुछ न कुछ प्रभाव तो अवष्य दृष्टिगोचर होगा, किन्तु अभी भी समय है। यदि हम सब अपने जीवन में योग को पूर्णता से सम्मिलित कर लें तो अब भी हम कलिकाल के प्रभाव को पर्याप्त मात्रा में निष्प्रभावी बनाकर कलियुग में भी सतयुग जैसा आनन्द ले सकते हैं।

योग को पूर्णता में अपनाने का अर्थ है, केवल शारीरिक व्यायाम ही न हो, अष्टांग योग और वैदिक वाग्ङमय में वर्णित योग के समस्त सिद्धांतों और प्रयोगों को हम अपनी दिनचर्या-जीवनचर्या में सम्मिलित करें और एक ऊर्ध्वगामी, विकासयुक्त, समस्त सम्भावनाओंयुक्त, दैहिक, दैविक, और आध्यात्मिक उपलब्धियों से भरपूर ओजवान, तेजवान और सर्वसमर्थ चेतनावान, पूर्ण व्यक्तित्ववान जीवन का आनन्द लें।

योग से सम्बन्धित अनेक ग्रन्थ हैं। षिव संहिता, घेरण्ड संहिता, पतंजलि योग सूत्र ये प्रमुख ग्रंथ हैं। श्रीमदभगवदीता, अनेक उपनिषद् और अन्य भारतीय शास्त्रों में भी योग की प्रक्रिया, सिद्धांत, गुणों और लाभों का वर्णन है। आज महर्षि पतंजलि का नाम योग विद्या के क्षेत्र में सर्वोपरि है।

भारतीय षट-दर्षनों, ( न्याय, वैषेषिक, सांख्य, योग, कर्ममीमांसा एवं वेदांत ) में जीवन की पूर्णता को स्पष्ट कर दिया गया है। हमारी यह पुस्तक चूंकि योग विषय पर है अतः यहाँ षट-दर्षनों में से योग विषय का ही अधिक विस्तार करेंगे। योग को कैसे समझें ? योगाभ्यास का महत्व क्या है ? योगाभ्यास किसे करना चाहिये ? योगाभ्यास किसे नहीं करना चाहिये ? योग की प्रमाणिकता क्या है ?

इस तरह के अनेकानेक प्रष्न हमारे मस्तिष्क में आते हैं। शास्त्रोक्त ग्रंथों के तथा योग साधकों के अपने अनुभव तथा अनुसंधानों के परिणामों को लेकर बड़ी संख्या में लेख, शोध-पत्र व पुस्तकें प्रकाषित हुई हैं। सभी साधकों व लेखकों ने योग को अपनी-अपनी तरह समझाया है।एक सामान्य और सरल भाषा में योग को इस प्रकार समझा जा सकता हैः

  • संस्कृत व्याकरण के अनुसार ‘युज्’ धातु से योग शब्द की रचना हुई है ‘युज्’ का अर्थ है जोड़ना। आज भी हम गणित में योग शब्द को जोड़ने के लिये प्रयोग में लाते हैं। अतः योग का एक अर्थ जोड़ना, एकीकरण करना है। किसका जोड़, किसका एकीकरण ? यह अगले कुछ बिन्दुओं में स्पष्ट होगा।
  • मन और बुद्धि, मन का व्यक्त मस्तिष्क और मस्तिष्क की क्रियात्मकता-बुद्धि (समझने के लिये मस्तिष्क को भ्ंतकूंतम और बुद्धि को ैवजिंतम कह सकते हैं) के बीच समन्वयात्मकता स्थापित कर सकने वाले सिद्धाँत और इनके प्रयोग ही योग के नाम से जाने जाते हैं। योग को आजकल कई व्यक्ति मस्तिष्क और शरीर के बीच समन्वय स्थापित करने वाला (उपदक.इवकल बववतकपदंजपवद) भी कहते हैं।
  • मन की शाँत अवस्था-अव्यक्त चेतना और उसकी भी सूक्ष्मत्तर अवस्था आत्मा और उसके व्यक्त रूप शरीर के बीच की समन्वयकारी क्रिया योग है।
  • योग शांत प्रषान्त स्थिर शुद्ध अद्वैत आत्मा और उसके चेतन रूप चेतना के बीच भी समन्वय स्थापित करता है।
  • योग व्यक्त और अव्यक्त के बीच की एक अहम कड़ी है।
  • योग आत्मा और परम आत्मा-परमात्मा के बीच की समन्वयकारी क्रिया है। आत्मा को परमात्मा तक ले जाने वाला या आत्मा को परमात्मा से मिला देने वाला योग ही है। हम सब सुन चुके हैं व्यक्ति् समष्टि रूप है (प्दकपअपकनंस पे बवेउपब), यथापिण्डे तथा ब्रह्माण्डे (ें पे जीम नदपअमतेमए पे जीम चीलेपवसवहल)। यह सिद्धांततः तो ज्ञात है किन्तु मनुष्य कभी इसका आनन्द नहीं उठा पाता, वह अपने आपको सामान्यतः बहुत छोटा, दीनहीन, सीमित, संकुचित अनुभव करता है। योगाभ्यास मनुष्य की इस सीमित विचारधारा को अनन्त विस्तारित करके असीमित कर देता है।
  • योग मनुष्य की चेतना में व्याप्त दुर्बलता को समाप्त करके जीवन में नई शक्ति, नई ऊर्जा, नया प्रकाष और नया विष्वास उत्पन्न करता है।
  • जीव ही ब्रह्म है। ‘अहम् ब्रह्मास्मि’, ‘अयमात्मा ब्रह्म’, सर्वंखलुइदम् ब्रह्म’ किन्तु जीव को तो इसका ज्ञान ही नहीं है कि वह ब्रह्म स्वरूप है या ब्रह्म ही है। योग विद्या ही वह साधन है जो जीव को ब्रह्म होने का ज्ञान प्रदान करके ब्रह्मत्व का अनुभव कराता है।
  • आत्मानुभूति] आत्मसाक्षात्कार] आत्मतत्व को समझने और समझाने के लिये जिस माध्यम की आवष्यकता है वह योग ही है।
  • मन की-आत्मा की शुद्धि] उसके विकास] उसकी शक्ति में वृद्धि] मानसिक शक्ति में वृद्धि और चेतना-आत्मा के आत्म रूप - प्रकट रूप] भौतिक शरीर का विकास, उसकी शक्ति का विकास] उसकी शुद्धि] उसके ओज और तेज में अभिवृद्धि के लिये सर्वाधिक उपयोगी योग ही है।
  • आत्मिक] दैविक और भौतिक तीनों के मध्य समान संतुलन बनाये रखना और तीनों के असंतुलन से किसी भी प्रकार के ताप-दुःख या समस्या को आने से रोकने में योग विद्या ही सक्षमह ै।
  • आत्मा के सर्वाधिक क्रियाषील रूप मन की गतिविधियों को, चंचलता को अत्यन्त सरलता से नियन्त्रित करके उसे विचारों के स्त्रोत तक ले जाकर स्थिर कर देना और फिर वहां से सभी कार्यां का सम्पादन करना, यह योग विद्या की परम विषेषता है। इसे ही भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवदीता में ‘योगस्थः कुरू कर्माणि’ कहा है।
  • मानवीय चेतना की सातों अवस्थाओं जागृत चेतना से लेकर, स्पप्न, सुषुप्ति, तुरीय (भावातीत), तुरीयातीत, भगवत और ब्राह्मीय चेतना तक अनुभव करा देने की सामर्थ्य केवल येग विद्या में है।
  • योग विद्या व्यक्तित्व के मानसिक व शारीरिक सर्वाग्ड-ण पूर्ण विकास का एकमात्र साधन है।


महर्षि पतंजलि के अष्टांग योग को विस्तार से समझाया है। येग दर्षन में पतंजलि योग सूत्रों को चार पादों में व्यक्त किया गया है। समाधिपाद] साधनपाद] विभूतिपाद एवं कैवल्यपाद।

समाधि पादः में महर्षि पंतजलि ने योग में प्रवृत्त होने के लिये आधार तैयार किया और फिर योग विद्या का प्रवेष कराया। समाधिपाद के प्रथम तीन सूत्र एक तरह से इस पाद की पूर्ण भूमिका बना देते हैं।

  • अथयोगानुषासनम्ः अर्थात् अब योग का अनुषासन होगा, योग विद्या का प्रारम्भ होगा, इसका जीवन में नियमानुसार प्रवेष होगा] अभ्यास होगा।
  • योगश्रिच्त्तवृत्तिनिरोधः अर्थात् चित्त की, मन की वृत्तियों, इच्छाओं को रोकना है। सामान्यजन इस सूत्र से भयभीत हो जाते हैं। यह तो बड़ा कठिन कार्य है, कैसा होगा? अपने मन की इच्छाओं को कैसे रोकें, यदि ऐसा किया तो जीना ही दूभर हो जायेगा, ऐसी भ्रान्ति फैली है। मन की वृत्ति को रोकना तो सबसे सरल कार्य है क्योंकि योग द्वारा मन की वृत्ति को रोकते नहीं है, मन की वृत्तियों को व्यवस्थित करते हैं, उन्हें उचित दिषा में मोड़ते हैं।बहिर्गामी मनोवृत्ति को अन्तर्गामी बनाते हैं। इसमें कोई शक्ति या बल का प्रयोग नहीं होता। मन का अन्तर्मुखी होना तो मन की स्वाभाविक वृत्ति है। योग विद्या के माध्यम से बहिर्गामी हो रही वृत्तियाँ को केवल एक संकेत देना होता है कि तुम्हारा मार्ग तो अन्तःगामी है, अपने मार्ग अपने स्वभाव से भटको मत, वहीं रहो और वहीं से अपना कार्य सम्पादन करो, तभी तुम पूर्णता को प्राप्त होगे।
  • तदा द्रष्दुः स्वरूपेऽवस्थानम् अर्थात् योग के ज्ञान और योगभ्यास के द्वारा चित्त की वृत्तियों को निरोध करके, नियंत्रित करके, अन्तर्मुखी करके अभ्यासकर्ता-दृष्टा अपने स्व-रूप, अपनी आत्मा में, अपनी परम-आत्मा में] परम सत्ता में अवस्थित होता है, स्थितप्रज्ञ हो जाता है, योगस्थ-योग में स्थित हो जाता हैं] समाधि का अनुभव करता है, यती हो जाता है।


आगे महर्षि पंतजलि ने योग द्वारा वृत्तियों पर विजयी होकर समाधि की प्राप्ति, उसका पूर्ण ज्ञान, उसके सारे गुण, अभ्यास विधान] प्रकार और अनुभव समाधिपाद में वर्णित कर दियें हैं। समाधिपाद में कुल ५१ सूत्र हैं।

साधनपादः महर्षि पंतजलि ने पहले पाद में तो योग विद्या प्राप्ति और योगाभ्यास के सक्षम-उत्तम-योग्य अधिकारियों के लिये योग विद्या और अभ्यास का क्रम समाधि के स्तर तक वर्णित कर दिया। साधनपाद में मध्यम श्रेणी के अधिकारियों जिनका मन, चित्त, मस्तिष्क या बुद्धि अभी शुद्ध और सात्विक नहीं है] जो सांसारिक प्रपंचों-कामनाओं] वासनाओं] इच्छाओं] राग-द्वेष आदि से पूरित हैं] आच्छादित हैं, कलुषित हैं, मलिन हैं, बोझिल हैं] उनके लिये क्रियायोग के द्वारा यम नियम आदि का पालन करते हुए वे मन को एकाग्र कर अपनी चेतना, आत्मा की शुद्धि कर सकें, ये विधान वर्णित कर दिया।

तपःस्वाध्यायेष्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः

अध्याय २, सूत्र-१


साधनपाद के प्रथम सूत्र में महर्षि पंतजलि ने तप] स्वाध्याय और ईष्वर प्रणिधान के द्वारा क्रियायोग का मार्ग बता दिया और दूसरे सूत्र समाधि भावनार्थः क्लेषतनूकरणार्थच्श्र में क्रियायोग से क्या प्राप्त होगा, यह बता दिया । समाधि की भावना अवधारणा और क्लेषों को प्रभाव न्यून कर पाना या समाप्त कर पाना, यह मार्ग प्रवृत्त किया है।

साधन पद में सुखःदुःख] इनका निवारण] समापन] दुष्टा-दृष्य और दर्षन की क्रिया] प्रकृति-पुरुष] प्रज्ञा] योगानुष्ठान] अष्टांगयोग] यम] नियम] आसन] प्राणायाम] प्रत्याहार] धारणा] ध्यान] समाधि और उनकी विस्तृत व्याख्या है। साधनपाद में कुल ५५ सूत्र हैं।

विभूतिपादः प्रथमपाद समाधिपाद में योग के उत्तमाधिकारी का योग में प्रवृत्त होना, द्वितीय पाद साधनपाद में मध्यमाधिकारी द्वारा क्रियायोग के माध्यम से योग में प्रवृत्त होकर बहिरग्ड. पांच तत्वों का विस्तृत वर्णन हुआ और अब तीसरे विभूतिपाद में अन्तरग्ड. संयम अर्थात् धारणा, ध्यान और समाधि का निरुपण महर्षि पंतजलि ने किया है। धारणा द्वारा चित्त वृत्तियों को, मनोवृत्तियों को स्थिर कर, ध्यान के द्वारा ध्येय तक पहुंचकर वहां आलम्बित रहना और फिर ध्यान की अग्रिम अवस्था-समाधि में प्रवेष कर चेतना का वहां ठहर जाना अर्थात् ‘संयम’ की प्राप्ति और उसका प्रकाषित होना, चित्त का एकाग्र होना, समाधि की अवस्था के विभिन्न अनुभव-ज्ञान सिद्धियों की प्राप्ति और मुक्ति का वर्णन विभूतिपाद में किया गया है। विभूतिपाद में कुल ५५ सूत्र हैं।

कैवल्यपादः योग में वृत्ति] समाधि] उसके साधन] सिद्धियाँ और मुक्ति का ज्ञान देते हुए कैवल्यपाद के प्रारम्भ में पाँच सिद्धियाँ और पाँच सिद्ध चित्त और चितिषक्ति का स्व-रूप में अवस्थित हो जाना अर्थात् कैवल्य को प्राप्त हो जाना महर्षि पंतजलि ने कैवल्यपाद में बतलाया है। कैवल्यपाद में कुल ३४ सूत्र हैं।

अष्टांग योग विद्या का वर्णन हम इस पुस्तक में कर रहे हैं। सरल शब्दों में योग के सभी अंगों को समझा सकें इसका प्रयत्न किया है। परमपूज्य महर्षि महेष योगी जी के श्री चरणों में निरन्तर २५ वर्षों तक रहकर येग विद्या के विषय में जो ज्ञान प्राप्त किया वह यहां संक्षिप्त में उल्लेखित कर दिया है। इस पुस्तक के लेखन में, विषेष रूप से योगासन एवं प्राणायाम के विषय में योगाचार्य श्री चित्तरंजन सोनी जी ने सहायता की है, उनके हम आभारी हैं। महर्षि योग विभाग के योग षिक्षकों श्रीमती मीना सोनी, कुमारी दर्षिका व जागृति की सहायता के लिये हम उनका भी धन्यवाद करते हैं।

इस पुस्तक में हठ योग और उसकी क्रियाओं का वर्णन नहीं किया गया है क्योंकि यह क्रियायें योग्य गुरू अथवा प्रषिक्षक के मार्गदर्षन में ही अभ्यास करनी चाहिये, केवल पढ़कर नहीं।

आषा है यह पुस्तक आपको योग विद्या का पर्याप्त ज्ञान प्रदान करेगी और आप अपनी दिनचर्या में इन सिद्ध सिद्धाँतों का समावेष कर अपने जीवन का सार्वदेषिक विकास कर सकेंगे।

समस्त शुभकामनाओं सहित
- ब्रह्मचारी गिरीष


BIOGRAPHY ACHIEVEMENTS & CONTRIBUTIONS PHOTO GALLERY MEDIA PUBLICATIONS EVENTS & REPORTS MAHARISHI ORGANIZATIONS BLOG SITEMAP CONTACT US

counter

Brahmachari Girish Ji Brahmachari Girish Ji Brahmachari Girish Ji

Copyright © 2016 girishji.in, All Rights Reserved.

Web Solution By : Maharishi Information Technology Pvt. Ltd. || Technical Team