समय की सीख
21/05/2020 03:07:25 PM administrator
समय की सीख समय पर ले लेनी चाहिए, ऐसा वयोवृद्ध और ज्ञानी महापुरुषों का मार्गदर्शन है। अक्षरत: सत्य है। कोरोना का समय आया, सारे विश्व में हाहाकार मची है। मृत्यु का आँकड़ा दो लाख पार कर गया है, किसी को कुछ सूझ नहीं रहा है, अफवाहों का बाजार गरम है। अभी तक सुनते थे, ''जितनी मुँह उतनी बातें'' अब सुन रहे हैं ''हर मुंह से हजारों बातें''। संकट के काल में भी अक्ल ठिकाने नहीं लग रही है। ओछी राजनीति छूट नहीं रही है, दोषारोपण पराकाष्ठा पर है, निकम्में कर्मठों पर आरोप लगा रहे हैं, कर्मठ अपनी चिन्ताओं से परेशान हैं, उन्हें ढाढस बढ़ाने वाला कोई नहीं है, वे अलग-थलग पड़ गये हैं, दिन और रातें योजना और निर्णय के लिये कम पड़ गये हैं।
कहते हैं समय बहुत बलवान होता है, अपने-अपने समय के बड़े-बड़े सूरमाओं का आज नामोनिशान नहीं है। एक गीत में सुना कि अपने समय में जिनकी इच्छा अथवा आज्ञा के बिना उनके साम्राज्य का एक पत्ता भी नहीं हिलता था, वे राजे-महाराजे चक्रवर्ती जो अपने परिवार के हर सदस्य की मृत्यु पर भव्य स्मारक बनवा दिया करते थे, उनका स्वयं का अंतिम संस्कार कहाँ हुआ, ये किसी को ज्ञात नहीं है। समय से कोई विजयी नहीं हो पाया। ऐसा लगता है कि समय, इतिहास और प्रकृति ये तीनों एक ही परिवार के अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्धी हैं। जो कुछ भी घटित हो रहा है, वह इन तीनों के द्वारा या इन तीनों के संज्ञान में हो रहा है। वैसे दोष तो ब्रह्मा जी को दिया जाता है कि सब कुछ उन्हीं का लिखा हुआ है। भगवान विष्णु के विरोधी भी कम नहीं हैं, सब कुछ उनकी ही माया से घटित हो रहा है, ऐसा देाष उन पर मढ़ दिया जाता है। रुचिकर बात यह है कि न ब्रह्मा दिखते हैं, न विष्णु दिखते हैं, न ही अपनी बातों का कोई प्रभाव उन पर दिखता है और न ही उनकी ओर से कोई उत्तर आता है। रही बात प्रकृति की तो वह प्रतिक्रिया दिखाये बिना नहीं छोड़ती। वह तो भगवान ने गीता में कह दिया ''मयाध्यक्षेण प्रकृति" सूयते स चराचरम्''। भगवान विष्णु कुछ नहीं करते। वे तो क्षीर सागर में नागराज की शैया पर योगनिद्रा का आनन्द लेते हैं और सम्पूर्ण चराचर जगत में उनकी प्रकृति उनके कार्य-उनके द्वारा रचित माया को आकार देती रहती है।
समय को निर्दोष माना जा सकता है, जैसी-जैसी प्रभु की लीला, वैसे-वैसे वह कार्य सम्पादन करता रहता है। हाँ उसे शिक्षक की भूमिका में रख देना शायद गलत नहीं होगा। सीख देने में समय की ही बड़ी भूमिका है। और इतिहास? उसकी कोई विशेष भूमिका योजना की रचना करने, कार्यान्वयन करने, शिक्षा देने, इनमें से किसी की क्षेत्र में तो नहीं प्रतीत होती। वो तो बस जब कार्य की इति हो जाती है तो उसको रिकार्ड में रख लेता है। अत: इतिहास दोष देने लायक नहीं है।
जैसा कि समय की भूमिका के विषय में विचार किया, इससे सीख तो निश्चित रूप में मिलती है। ये सबके जीवन संचालन रिमोट से करता है, दिखता नहीं है और अमिट प्रभाव छोड़ता है, किसी को छोड़ता नहीं है, किसी को क्षमा भी नहीं करता, शायद धर्मराज- यमराज और चित्रगुप्त इसके निकट के सम्बन्धी हैं। ये अवश्य देखा गया कि जो अपने जीवन में प्रकृति का पोषण करता है प्रकृति उसका पोषण करती है। इसी तरह यह भी निश्चित ही है कि जो समय के प्रति सम्मान रखते हुये, उसके नियमों का पालन करते हुये, उसे साथ लिये हुये चला, समय उसके लिये अनुकूल रहा, शुभफलदायक रहा, अच्छी सीख देता रहा, सावधान करता रहा और अंत में सद्गति भी देता रहा। सदा से यह शाश्वत् सत्य रहा है, आज भी है और कल भी रहेगा क्यों कि समय सर्वाधिक बलवान है। आज की परिस्थिति में समय हमें क्या सीख दे रहा है, आइये इस पर थोड़ा विचार कर लें।
हमारे विचार से तो समय जीवन की सबसे बड़ी सीख का स्मरण करा रहा है कि जीवन का कोई ठिकाना नहीं है। कब किस कारण से जाना पड़ जाये, पता नहीं। एक छोटा सा, अदृष्य कारण 200,000 व्यक्तियों का जीवन संक्षिप्त काल में ले ले और आगे कितनों को और समेट लेगा, यह किसी को पता नहीं है। विश्व के शीर्षस्थ वैज्ञानिक इसकी प्रकृति, संरचना, व्यवहार, प्रभाव और काट को लेकर अनुसंधान में रात-दिन एक किये हैं, चार माह हो चुका है लेकिन अंतिम परिणाम पर पहुँचना अभी भी संभव नहीं है। जीवन के प्रति, दीर्घायु के प्रति आशायें तो सबकी अनन्त होती हैं किन्तु उसके प्रति मोह हो जाना यह उचित नहीं है। आशा और कल्पना उचित है किन्तु आशा और कल्पना ही सत्य है, ऐसा मानना आम जन के लिये उचित नहीं है, ज्ञानी और सिद्ध पुरुषों की बात अलग है।
अत: पहली बात यह कि अपने जीवन के कर्तव्यों को ऐसा निभाया जाये कि करने को कुछ शेष कभी भी न रह जाये। जब बुलावा आये, चल पड़े।
दूसरी आवश्यक बात यह है कि सदा सत्कर्म ही करें। बुरे कर्मों का फल मालूम तो सबको होता है, मन में एक चोर छिपा रहता है ये रिकार्ड लेकर कि हमने ये बुरे कर्म किये हैं और पता नहीं इन्हें सुधारने का समय कभी मिलेगा या नहीं। अन्तिम समय स्वयं के कर्मों का लेखा-जोखा सामने आ जाता है किन्तु तब तक बहुत विलम्ब हो चुका रहता है, तब सुधारने का अवसर नहीं मिलता, तब उस समय तक का लेखा जोखा लेकर जाना पड़ता है।
तीसरी बात समय से अपने जीवन का अंकेक्षण कराना सीख लें। जीवन में कौन हमारा सबसे निकट है, कौन दूर है, कौन शत्रु है और कौन हितशत्रु हैं यह हमें समय ही सिखाता है। पिछले एक माह से लॉकडाउन है, हम बस अपने-अपने घर में रहने को बाध्य हैं। हर किसी की अपनी-अपनी आवश्यकतायें हैं। किसी को भोजन सामग्री चाहिये, किसी को नित्य उपयोग की वस्तुयें, किसी को बच्चों की वस्तुयें चाहिये, तो कोई घर के बाहर बने भोजन को तरस रहा है, कोई बेरोजगार हो गया, किसी का व्यवसाय चौपट हो गया, कोई अपने घर परिवार से सैकड़ों या हजारों किलोमीटर दूर फँसकर रह गया, किसी का विवाह टल गया तो कोई अपने सगे सम्बन्धी के अन्तिम संस्कार में सम्मिलित नहीं हो पाया। कई व्यक्ति, कई संस्थायें, सरकारें सहायता के लिये आगे आये हैं। सचमुच में किसको कितनी सहायता प्राप्त हो पा रही है, इसको नापने के लिये कोई स्केल नहीं है। एक सहायता सबसे बड़ी हम दे सकते हैं और वह है मन की शाँति, सान्त्वना, ढाढस। ये सभी वस्तुओं की तुलना में अधिक मूल्यवान है। किन्तु इसकी कमी सर्वत्र है। बस यहीं ज्ञात हो जाता है कि किससे क्या मिल रहा है। घर से कार्य करने का अवसर सबको प्राप्त हुआ है। सरकार ने आदेश कर दिया कि सबको पूरा-पूरा वेतन दिया जाये। कौन घर से कितना कार्य कर रहा है, इसका कोई हिसाब नहीं है। कइयों का तो पिछले एक माह से कोई अता-पता ही नहीं है। "गधे के सिर से सींग" की तरह अदृश्य हैं। उनके साथियों, उनके अधिकारियों, उनकी संस्थान की क्या स्थिति है, ये पता करने का प्रयत्न तक उन्होंने नहीं किया। हाँ वेतन में 50 या 100 रु. कम आने पर वित्त विभाग को सम्पर्क अवश्य कर लिया। कर्मठ और अकर्मठों की सूची को ठीक करने का यही अवसर है। कौन कितना जिम्मेदार है, कौन कितना ध्यान पूर्वक कितने समर्पण भाव से संस्थान के प्रति उत्तरदायी है इसकी परीक्षा तो हो गई। समय ने सीख दी, भविष्य के लिये सूची में सुधार हो गया। कर्मठों और अकर्मठों के प्राप्ताँक बदल गये।
इसके अतिरिक्त भी समय ने बहुत कुछ सिखा दिया। आज हमारे विद्यालय की एक बिटिया ने कहा कि "सर कल तक स्कूल में मोबाइल फोन लाने की मनाही थी, आज देखिये सारा स्कूल मोबाइल में आ गया"। बात तो सही है। कल तक हम बच्चों को मोबाइल से दूर रखना चाहते थे, आज वही माध्यम बच्चों की शिक्षा का प्रमुख माध्यम बन गया। किसी भी वस्तु का सदुपयोग सत्कार्य के लिये किया जाये तो वह कार्य की वस्तु साबित होती है। पिछले वर्ष से यूजीसी न जाने क्यों भारतवर्ष में दूरस्थ शिक्षा के कार्यक्रमों को रोकने में लगी थी। नये-नये विचित्र नियम बनाकर विश्वविद्यालयों को परेशान किया जा रहा था। जिन विश्वविद्यालयों ने पिछले अनेक वर्षों में दूरस्थ शिक्षा के कार्यक्रम करोड़ों रूपये खर्च कर तैयार किये, वे सब पानी में बहाने की तैयारी यू.जी.सी. ने कर दी थी। अब देखिये वही यू.जी.सी. ऑनलाइन एजूकेशन का गाना गा रही है।
समय ने हमें अष्ट प्रकृतियों की याद दिला दी है, भूमि से उठकर अहंकार तक का क्रम देखिये। प्रकृति पृथ्वी से प्रारम्भ होती है, उठती है और अन्त में मन, बुद्धि अहंकार पर जाकर पूर्ण होती है। जब यही अहंकार की प्रकृति, स्वाभिमान की प्रकृति से, अभिमान की प्रकृति में परिवर्तित होती है, इसमें से स्व छूट जाता है तो मानव का पतन होकर वह प्रथम प्रकृति-पृथ्वी पर गिर पड़ता है। इसे समझना चाहिये। अष्टप्रकृतियों का संतुलन बनाये रखना चाहिये, ये तभी होगा जब इनका आधार नवीं प्रकृति-परा प्रकृति में होगा। अन्यथा बिना मूल के अथवा छिन्न भिन्न हुई मूल के वृक्ष की तरह जीवन वृक्ष भी कभी भी धाराशायी हो जायेगी ''छिन्ने मूले नैव शाखा न पत्रम्'' वेद ने तो पहले ही बता दिया है।
इसके अतिरिक्त समय ने सम्बन्धों में बदलाव भी दिखाया। अभी तक हम पुलिस को हाथों में डंडा और बन्दूक वाली छवि से देखते थे। अब पुलिस को भोजन पकाते, भोजन बाँटते, छोटे बच्चों को गोद में उठाये और वृद्ध पुरुष या महिला का हाथ पकड़े सड़क पार कराते, जनहित में सड़क पर गीत गाते और नृत्य करते और स्वयं मार खाते हुए भी देख रहे हैं।
धर्मार्थ और परमार्थ अधिकतर व्यक्तियों के लिये शब्दकोष के शब्द थे, अब इसका प्रायोगिक अर्थ समझ में आया है। सामान्य आर्थिक स्थिति वाले परिवार भी नित्य कुछ परिवारों को भोजन करा रहे हैं। हमारे कुछ परिचित चिकित्सकों ने कहा कि सामान्य दिनों में अपने कार्य के घंटे पूर्ण करने पर थकावट का अनुभव होता था और अपने घर चले आते थे। अब वे 18 से 22 घंटे तक कार्य करते हैं। जिम्मेदारी के अहसास ने उनमें अनूठी ऊर्जा उमंग भर दी है। अब अतिरिक्त घंटे कार्य करने में उन्हें कोई और थकावट नहीं होती, वे सेवा भाव की संतुष्टि से सदा तरोताजा बने रहते हैं।
शिक्षक-शिक्षिकाओं ने बताया कि पहले अवकाश के दिन कार्य करने का कोई विचार मन में नहीं आता था। अब सप्ताह के सातों दिन बराबर हो गये हैं। अपने विद्यार्थियों को कितना अधिक ज्ञान कितनी शीघ्रता से दे दें, बस यही धुन सवार रहती है। यह सब क्या है? ये सब समय की सीख है।
इसके अतिरिक्त विचार कैसा हो, व्यवहार कैसा हो, वाणी कैसी हो, सीमित साधनों के रहते हुए भी सुखी और प्रसन्न जीवन कैसा हो, बर्हिमुखी चेतना अथवा मन को अन्तर्मुखी कैसे बना लें, शाँत-प्रशाँत चेतना सागर में स्थित अनन्त ज्ञान शक्ति से अनन्त और असीमित क्रिया शक्ति कैसे जगा लें, यह सब समय की ही तो शिक्षा है। आइये, कोरोना के बहाने ही समय ने छोटे से समय में बहुत कुछ सिखा देने का आशीर्वाद दिया है, उसके लिये हम समय को धन्यवाद कहें, समय का आभार प्रकट करें, उसे साधुवाद दें।
जय गुरु देव, जय महर्षि
ब्रह्मचारी गिरीश
अध्यक्ष-महर्षि शैक्षणिक संस्थान समूह
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