परम सेवा
04/10/2016 03:00:24 PM administrator
एक सेवा है और दूसरी परम सेवा। दूसरे के हित के लिये भोजन-वस्त्र देना, शरीर को आराम पहुँचाना, सांसारिक सुख के लिये तन-मन-धन अर्पण करना सेवा है। परम सेवा यह है कि अपना तन-मन-धन अर्पण करके दूसरे का कल्याण कर दे। किसी को आजीविका देना लौकिक सेवा है। जो परमात्मा की प्राप्ति में लगे हुए हैं उन्हें परमात्मा के निकट पहुँचने में मदद देना पारमार्थिक सेवा है। कोई मृत्युशैया पर है और उसकी इच्छा है कि मुझे कोई गीता जी सुनावे। आप उसके पास पहुँच गये और उसको गीता जी सुनायी तो यह परम सेवा हुई। परम सेवा वह है जिसके बाद उसको सेवा की आवश्यकता न रहे। आपने लाख आदमियों की सेवा की, रुपया-औषध दिया, भोजन आदि दिया, दूसरी ओर आपने एक की भी परम सेवा की तो यह उनसे बढ़कर है। उसके अनेक जन्मों का अन्त करा दिया। अनन्त जन्म होने से उसकी रक्षा की। मन में सेवा की कामना पैदा होना ही मूल में सेवा का आधार है। सेवा में स्मरण स्वत: हो जाता है। सेवा में अहं का भी नाश हो जाता है जो परमात्मा प्राप्ति में सबसे बड़ा बाधक है। जब व्यक्ति में सेवा भाव उत्पन्न हो जाता है तो वह मोक्ष का अधिकारी हो जाता है। सेवा का साधारण अर्थ है कि दूसरों को ईश्वर का अंश मानते हुए उनकी भलाई के लिए कार्य करना। समस्त प्रकार की सेवा का फल मीठा होता है, पर सात्विक निष्काम सेवा से ही जीव को मोक्ष प्राप्त होता है। सेवा राजसिक एवं तामसिक भी होती है। जब व्यक्ति कामना युक्त हो कर सेवा करता है, वह राजसिक सेवा कहलाती है। वह सेवा दूसरों को हानि पहुँचाने की इच्छा से की जाती है, वह तामसिक सेवा है। व्यक्ति झूठ, छल, कपट का सहारा लेकर ढोंग पूर्वक सेवा करता है पर वास्तव में उसका भाव दूसरों का अहित करना होता है। सेवा रावण ने भी की और सेवा हनुमान जी ने भी की। रावण की सेवा सकाम भाव से थी। वह अंहकारी बन गया। हनुमान जी की सेवा निष्काम भाव से थी। रावण का सर्वनाश हो गया और हनुमान जी अष्ट सिद्धि नव निधि के दाता बन गए । व्यक्ति को तामसिक सेवा तो कभी भी नहीं करनी चाहिए। ऐसा व्यक्ति नरक को जाता है। राजसिक सेवा का फल मिल कर मिट जाता है। कभी-कभी वह अंहकार भी पैदा करती है, जिससे वह नरकगामी बन जाता है। इसलिए हमें केवल सात्विक निष्काम सेवा ही करनी चाहिए। सभी प्रकार की सेवाएं उत्तम हैं पर अपने गुरुदेव की सेवा सर्वोत्तम है। इससे हमें अपने नारायण स्वरूप गुरु की विशेष प्रसन्नता प्राप्त होती है जो हमारे मोक्ष का कारण बनती है।
गीता में भी भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतेहिते रता: । (12/4)
अर्थात् वे मुझे यानि परमात्मा को ही प्राप्त होते है जो प्राणीमात्र के हित में लगे हुए हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में पत्तल उठाई थी। भगवान राम मतंग ऋषि के आश्रम में गये। वहाँ वेदपाठी, स्वाध्याय, मनन करने वाले, यज्ञ करने वाले, तपस्वी, मुनी, योगी सभी थे, पर भगवान राम किसी के पास नहीं गये। वे सीधे शबरी के पास गये। शबरी एक बूढ़ी स्त्री, अनपढ़, गंवार, छोटी जाति से सम्बन्ध रखती थी।
शबरी कहती है
अधम से अधम अधम अति नारी ।
तिन्ह महँ मैं मतिमंद अघारी ।।
शबरी में एक गुण था कि वह नित्य आश्रम की सेवा में लगी रहती थी। अन्त: करण में राम समाये हुये थे। उनका स्मरण हर समय होता रहता था और वह शरीर से आश्रम की सेवा करती रहती थी। सेवा भाव जिसके जीवन में प्रवेश कर जाता है, वह स्वयं की चिन्ता करना छोड देता है। सेवा एक तरह का दान ही है। तन का, मन का, धन का, ज्ञान का, प्रेम का किसी भी रूप में हो। सेवा सही अर्थो में मोक्ष मार्ग ही है। न किसी शिक्षा की जरूरत, न ही किसी साधना की। केवल भावनाओं का विकास करना है। स्वयं का चिन्तन छोडकर जो दूसरों के चिन्तन में जीता है, वही ईश्वर कहलाता है।
'जय गुरुदेव, जय महर्षि?
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