मन को आत्मसात कीजिए - ब्रह्मचारी गिरीश जी
07/06/2024 10:45:34 AM administrator
बचपन में किसी भी खेल को जीतने या अच्छे अंक लाने पर माता-पिता हमें देखकर मुस्कुरा देते थे, हमें प्रोत्साहित करते थे, थपकी देते थे। वहीं खराब प्रदर्शन करने पर डाँट पड़ती थी। समाज के तय नियमों वाली सुन्दरता के अनुसार शरीर का आकार न होने पर हमें टोका जाता था। ऐसे में हमें यही लगता कि अपने माता-पिता का और दूसरों का स्नेह पाने के लिए हमारा विशेष प्रकार का होना आवश्यक है। ऐसे में जब हम कुछ प्राप्त करने में रह जाते, तब उस पल का अधूरा अनुभव होना, माता-पिता से मिलने वाले प्रेम में कमी दिखाई देती है। धीरे-धीरे यह बात मन में बैठ जाती कि हम स्नेह पाने के योग्य नहीं हैं। एक बच्चे का मस्तिष्क यह नहीं समझ पाता कि उससे कौन-सी त्रुटि हुई है और कौन-सी त्रुटि स्वाभाविक तौर पर हो जाती है? इस स्थिति से जूझते हुए एक बच्चा सबसे अधिक उत्पीड़न अनुभव करता है। प्रत्येक समय मिलने वाली अस्वीकृति उसे तोड़कर रख देती है। वे सभी पल मस्तिष्क में स्मृृृति के रूप में जमा हो जाते हैं, जिनका प्रभाव हमारे शरीर, भावनाओं और शारीरिक प्रतिक्रियाओं के रूप में दृष्टिगत होता है। हर बार असफलता आने पर मन आत्मग्लानि से भर जाता है और अगर यह कष्ट गहरा हो तो शरीर और मस्तिष्क के बीच संतुलन ही बिगड़ जाता है। यह एक बड़ा विषय है, जिस पर अलग से बात करनी चाहिए। कुल मिलाकर, रिवार्ड हमारे लिए सब कुछ हो जाता है। किसी भी प्रकार हमें स्वयं को सिद्ध करना होता है और जताना होता है कि हाँ हम सफल हैं, किंतु तब क्या जब हमें जॉब नहीं मिलती या हम उसे गँवा देते हैं या कैरियर में हम आगे नहीं बढ़ पाते या हमें उतने ग्राहक नहीं मिलते, जितने मिलने चाहिए या आपके प्रदर्शन से बॉस प्रसन्न नहीं होते। ऐसे में अनेक बार आप स्वयं को अकेला अनुभव करते हैं। प्रारंभ में आपका अपना यह सुरक्षा देने का प्रयास होता है कि आप गलत सोच रहे हैं। आपके पास जो है, उसके लिए कृतज्ञ होना चाहिए। अनेक बार आप अपनी कमी छुपाने के लिए दूसरों को दोष देना प्रारंभ कर देते हैं। यह भावना कि हम स्नेह के योग्य नहीं हैं, गहरा कष्ट देती है। जब भी अस्वीकृति से सामना होता है, वही चोट खाया हुआ बच्चा फिर से जागने लगता है और बचपन के पुराने कष्ट याद आने लगते हैं। आप बाहरी तत्वों से अपनी अहमियत जोड़ने लगते हैं। मैं बताना चाहता हूँ कि जीने के और भी अच्छे तरीके हैं। इससे आप सुखी अनुभव करेंगे, क्रोध नहीं आएगा और न ही चोट खाया बचपन बार-बार याद आएगा और इसका हल अपनी भावनाओं को नकारना नहीं है। चूँकि यह सभी समस्याएँ आपकी मान्यता और मूल्य से जुड़ी होती हैं तो इससे आप बाहर भी निकल सकते हैं। बस आपको स्वयं को नई दृष्टि से देखना और स्वीकार करना होगा। तय करना होगा कि आपका महत्व दुनिया के कुछ आधारहीन नियमों द्वारा तय नहीं किया जा सकता। इससे कोई प्रभाव नहीं पड़ता कि आपके आस-पास के लोग कैसा कैरियर चुन रहे हैं या बाकी लोग क्या सोचते हैं। सत्य यही है कि इनमें से कोई बात अर्थ नहीं रखती है। जब आप अंदर से युद्ध लड़ रहे होते हैं, तब सभी उपलब्धियाँ, बड़ा मकान है, प्रसन्न परिवार के मापदंड, सुंदर शरीर...आदि सब कुछ अर्थहीन हो जाते हैं। महत्वपूर्ण आपकी आंतरिक शक्ति ही होती है। ईश्वर या गुरु मात्र मुक्ति का मार्ग दिखाएँगे, वे जीव को मुक्ति की अवस्था तक ले जा सकते हैं, किंतु अंतिम प्रयास आपको ही करना होगा। वास्तव में ईश्वर एवं गुरु भिन्न नहीं हैं। जो गुरु की कृपा दृष्टि की परिधि में आ गए हैं, वे कष्ट में नहीं होंगे, बल्कि गुरु द्वारा रक्षित होंगे, तथापि हर किसी को ईश्वर या गुरु द्वारा दर्शाए गए मार्ग पर स्वयं प्रयत्न करना एवं मुक्ति प्राप्त करना चाहिए। स्वयं को, स्वयं के द्वारा जानना है, कोई किसी दूसरे के द्वारा कैसे जान सकता है? क्या आपको स्वयं को जानने के लिए दर्पण की आवश्यकता होगी? जो अपना स्वरूप जानना चाहे, तो उस स्वरूप को ढँकने वाले तत्वों को निरस्त करने के स्थान पर उनकी संख्या गिनने या उनकी विशेषताएँ जानने की आवश्यकता नहीं है। संसार को ईश्वर की माया जैसा ही मानना चाहिए। समस्त शास्त्र कहते हैं कि मुक्ति पाने के लिए मन को आत्मसात करना होगा तभी आपको आपका सच्चा भीतरी स्वरूप दिखाई देगा। अपने मन को आत्मसात करना चाहिए और मन को आत्मसात करने के लिए नियमित प्रात: एवं संध्या के समय 15 से 20 मिनट भावातीत-ध्यान-योग का अभ्यास आपको स्वयं को जानने में सहायक सिद्ध होगा।
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