प्रेम का स्वभाव
18/05/2023 01:30:39 PM administrator
अशोक वाटिका में जिस समय रावण क्रोध में भरकर, तलवार लेकर सीता माँ को मारने के लिए दौड़ पड़ा तब हनुमान जी को लगा कि इसकी तलवार छीन कर, इसका वध कर देना चाहिये! किन्तु अगले ही क्षण, उन्होंने देखा मंदोदरी ने रावण का हाथ पकड़ लिया! यह देखकर हनुमान जी गदगद हो गये! और वे सोचने लगे, अगर मैं आगे बढ़ता तो मुझे भ्रम हो जाता कि यदि मैं न होता, तो सीता जी को कौन बचाता? बहुधा हमको ऐसा ही भ्रम हो जाता है, मैं न होता तो क्या होता? परन्तु ये क्या हुआ? सीताजी को बचाने का कार्य प्रभु ने रावण की पत्नी को ही सौंप दिया! तब श्री हनुमान जी समझ गये कि प्रभु जिससे जो कार्य लेना चाहते हैं, वह उसी से लेते हैं! आगे चलकर जब त्रिजटा ने कहा कि लंका में बंदर आया हुआ है और वह लंका जलायेगा! तो हनुमान जी बड़ी चिंता मेें पड़ गये कि प्रभु ने तो लंका जलाने के लिए कहा ही नहीं है और त्रिजटा कह रही है कि उन्होंने स्वप्न में देखा है, एक वानर ने लंका जलाई है! अब उन्हें क्या करना चाहिए? जो प्रभु इच्छा! जब रावण के सैनिक तलवार लेकर श्री हनुमान जी को मारने के लिये दौड़े, तो हनुमान जी ने अपने को बचाने के लिए तनिक भी चेष्टा नहीं की और जब विभीषण ने आकर कहा कि दूत को मारना अनीति है, तो हनुमान जी समझ गये कि मुझे बचाने के लिये प्रभु ने यह उपाय कर दिया है! आश्चर्य की पराकाष्ठा तो तब हुई, जब रावण ने कहा कि बंदर को मारा नहीं जायेगा, पर पूँछ में कपड़ा लपेट कर, घी डालकर, आग लगाई जाये तो हनुमान जी सोचने लगे कि लंका वाली त्रिजटा की बात सच थी, वरना लंका को जलाने के लिए मैं कहाँ से घी, तेल, कपड़ा लाता और कहाँ आग ढूँढता? पर वह प्रबन्ध भी श्रीराम आपने रावण से करा दिया! जब आप रावण से भी अपना काम करा लेते हैं, तो मुझसे करा लेने में आश्चर्य की क्या बात है! इसलिये सदैव याद रखें कि संसार में जो हो रहा है, वह सब ईश्वरीय विधान है! हम और आप तो मात्र निमित्त मात्र हैं! इसीलिये कभी भी ये भ्रम न पालें कि मैं न होता तो क्या होता? न मैं श्रेष्ठ हूँ, न ही मैं विशेष हूँ, मैं तो बस छोटा-सा, ईश्वर का दास हूँ। उपरोक्त प्रसंगों से हम सभी को भ्रम रहित हो जाना चाहिए और यही सत्य है कि प्रभु की जब हम पर कृपा होती है तभी हम प्रेम को जान व समझ पाते हैं। जब हमारा मन प्रेम से भरा होता है तो हम अपने आस-पास जो भी कुछ होता है उससे प्रेम करने लगते हैं। मन में जब प्रेम भर जाता है तो मन से मैं अर्थात अहम का नाश हो जाता है और जीवन की आनंदमई यात्रा के लिये। मन में सभी के प्रति प्रेम होना आवश्यक है। थोड़ी बहुत सात्विक बुद्धि तो होती है। नहीं है तो सत्संग करें, सज्जनों का संग करें। बुद्धि में सात्विकता बढ़ेगी तो ये सब बातें सरलता से समझ में आने लगती हैं। यहाँ प्रत्येक व्यक्ति सुख चाहता है, दु:ख कोई भी नहीं चाहता चाहे कोई भी हो। अपवाद एक भी नहीं। वस्तुत: हर आदमी आनंद ही चाहता है जो अस्थायी सुख है, स्थायी सुख नहीं जिसके साथ दु:ख अनिवार्य रूप से जुड़ा हुआ है सिक्के के दूसरे पहलू के समान। आनंद तभी संभव है जब हृदय सभी के हृदय से जुड़ जाय, जब मैं, मेरे की मान्यता पूरी तरह से विलीन हो जाय और प्रेम प्रकट हो जाय ऐसा प्रेम जो स्वभाव में होता है, अलगाव सूचक संबंधों में नहीं। जब तक अहंकार है, पृथक, सुरक्षित मैं की मान्यता है तब तक संबंध बनते-बिगड़ते रहते हैं। जब प्रेम स्वभाव में होता है, जब सब कुछ जुड़ा अनुभव होता है तब संबंध नहीं होते। इसलिये प्रारंभ स्वयं से करना उचित है तब आरंभ में ही समझ में आ जाता है कि प्रेम स्वभाव में होता है, संबंधों में नहीं। आरंभ स्वयं से होगा, अंत भी स्वयं में होगा, तब हम ही विराट पुरुष होंगे या भिन्न होंगे उस विराट पुरुष से जो आनंदस्वरूप है।
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