Brahmachari Dr. Girish Chandra Varma Ji Blog


जीवन-चेतना

जीवन-चेतना

जीवन-चेतना  13/06/2023 03:31:52 PM   जीवन-चेतना   administrator

एक दिन महात्मा बुद्ध एक वृक्ष को नमन कर रहे थे। दूर खड़े भिक्षु ने देखा, तो उसे कुछ अचंभित हुआ। थोड़ी झिझक और कुछ उत्सुकता के साथ वह बुद्ध के पास पहुुँचा और पूछा, भंते! आपने इस वृक्ष को नमन क्यों किया? भिक्षु की बातें सुनकर बुद्ध ने उससे प्रतिप्रश्न किया, क्या इस वृक्ष को मेरे नमस्कार करने से कुछ अनहोनी हो गई? बुद्ध का उत्तर सुनकर शिष्य बोला, नहीं-नहीं भगवन! ऐसी बात नहीं, किंतु मुझे यह देखकर थोड़ा आश्चर्य अवश्य हुआ है कि आप जैसा ज्ञानी महापुरुष इस वृक्ष को नमस्कार क्यों कर रहा है, जबकि यह न तो आपकी किसी बात का उत्तर दे सकता है और न ही आपके नमन करने पर अपनी प्रसन्नता अभिव्यक्त कर सकता है? भिक्षु की बातें सुनकर बुद्ध मुस्कराए और कहा, वत्स! तुम्हारा सोचना असत्य है। वृक्ष भले बोलकर उत्तर न दे सकता हो, किंतु जिस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति के शरीर की एक भाषा होती है, उसी प्रकार प्रकृति और वृक्षों की भी अलग भाषा होती है। अपना सम्मान होने पर ये झूमकर प्रसन्नता और कृतज्ञता, दोनों व्यक्त करते हैं। इस वृक्ष के नीचे बैठकर मैंने साधना की, इसकी घनी पत्तियों ने मुझे शीतलता प्रदान की, चिलचिलाती धूप, वर्षा से मेरा बचाव किया। हर पल इसने मेरी सुरक्षा की। इसके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना मेरा परम कर्तव्य है। प्रत्येक जीव को प्रकृति का कृतज्ञ होना चाहिए। तुम इस वृक्ष की ओर ही देखो, इसने मेरी कृतज्ञता, मेरे धन्यवाद को किस आह्लाद के साथ ग्रहण किया है। यह झूमकर मुझे बता रहा है कि आगे भी यह प्रत्येक व्यक्ति की हरसंभव सेवा करता रहेगा। बुद्ध की बात पर शिष्य ने वृक्ष को नए आलोक में देखा, उसे भी अनुभव हुआ कि पेड़ एक अलग आनंद में झूम रहा है और उसकी झूमती हुई पत्तियाँ, शाखाएँ व फूल मन को एक अद्भुत शांति प्रदान कर रहे हैं। यह देखकर शिष्य स्वत: वृक्ष के सम्मान में झुक गया। इस प्रकृति में उपस्थित सभी अवयवों की उपस्थिति का कोई न कोई उद्देश्य है। विडंबना यह है कि मनुष्य अपने स्वार्थों की कसौटी पर उन्हें परखता है और उसी के आधार पर उनसे अपने संबंध तय करता है। उसकी प्रशंसा, उपेक्षा और कृतज्ञता के पीछे संबंधित अवयव के उद्देश्य की गहरी परख नहीं होती, वरना वह उनके प्रति कभी अनुदार नहीं होता। बुद्ध वृक्ष के आभारी हैं, क्योंकि उसकी उपस्थिति जीव कल्याण के निमित्त है। वे न मात्र अपनी छाया और फलों के माध्यम से जीवों का पोषण करते हैं, साथ ही अपनी पत्तियों को त्यागकर धरती की उर्वरा शक्ति बनाए रखते हैं और सूखने के बाद भी दूसरों का कल्याण कर जाते हैं। फिर उसका आभार व्यक्त करना बुद्ध कैसे भूल सकते थे? चेतना वह शक्ति जिससे हमें अपने आस-पास के वातावरण के तत्वों का बोध होता है तथा उनका मूल्यांकन करते हुए हम हमारे जीवन में अपनाते हैं। जो लोग परमपूज्य महर्षि महेश योगी जी द्वारा प्रणीत भावातीत ध्यान का नियमित अभ्यास करते हैं, उन्हें अनुभव होता है कि पारलौकिक चेतना असीम जागरूकता है- यही शुद्ध जागृति है, जो हमारे भीतर है, यह मात्र एक शक्ति जो हमें, स्वयं से परिचित कराती है। यह परिचय सम्पूर्ण शरीर क्रिया विज्ञान के कार्य को समग्र स्तर पर जीवंत करता है। साथ ही सामाजिक चेतना में सामंजस्य और राष्ट्रीय चेतना में सकारात्मकता और सद्भाव को प्रेरित करता है। परमपूज्य महर्षि कहते हैं कि-‘‘सम्पूर्ण ब्रह्मांड चेतना की अभिव्यक्ति है, ब्रह्मांड की वास्तविक गतिमान चेतना एक असीमित महासागर है। सृजन की अनंत विविधता और गतिशीलता चेतना के शाश्वत मौन, आत्मनिर्देशन, आत्मनिर्भर, असीम क्षेत्र की अभिव्यक्ति है। सम्पूर्ण जीवन चेतना से ही उत्पन्न होते हुए इसी पर आधारित होता है। यह धर्म की भाषा में ‘ईश्वर की इच्छा के अनुसार कार्य करें’ या विज्ञान कि भाषा में ‘प्राकृतिक नियमों के अनुसार जीवन जिएँ।’’ जो चेतना के समान ही अनंत विस्तारित है। परमपूज्य महर्षि महेश योगी सदैव प्रकृतिमय होने का सन्देश देते थे और प्रकृतिमय होने के लिये ‘‘भावातीत ध्यान’’ के प्रतिदिन प्रात: एवं संध्या को 10 से 15 मिनट अभ्यास के लिये प्रेरित करते हैं। वह कहते थे कि जिस प्रकार किसी पेड़ या पौधे को जीवन दायनी जल व खाद उसकी जड़ में दी जाती है जो उस पौधे या पेड़ का सर्वांग विकास एवं पोषण करता है। ठीक उसी प्रकार ‘‘भावातीत-ध्यान’’ के नियमित अभ्यास से हमारी चेतना जागृत होती है जिससे हमारा संर्वागीर्ण विकास होता है जो हमारे जीवन को आनंद से पूर्ण करता है क्योंकि जीवन आनंद है- संघर्ष नहीं।


0 Comments

Leave a Comment