देह से आसक्ति कैसी?
09/08/2023 04:15:20 PM administrator
एक देवता और एक असुर किसी महापुरुष के पास आत्म-जिज्ञासु होकर पहुँचे। महापुरुष के पास लंबे समय तक रहकर उन्होंने शिक्षा प्राप्त की। फिर एक दिन महापुरुष ने उनसे कहा, 'तुम लोग जिसको खोज रहे हो, वह तो तुम्हीं हो।' दोनों ने सोचा, 'तो देह ही आत्मा है।' फिर यह सोचकर कि जो कुछ मिलना था, मिल गया, दोनों संतुष्ट चित्त से अपनी-अपनी जगह प्रस्थान कर गए। अपने-अपने आत्मीय जनों के बीच उन्होंने कहा, 'जो कुछ सीखना था, सब सीख आए। अब आओ, भोजन, पान और आनंद में दिन बिताएँ, हम ही आत्मा हैं, इसके सिवा और कहीं कोई वस्तु नहीं।' असुर का स्वभाव अज्ञान से ढका हुआ था, इसलिए इस विषय में उसने आगे अन्वेषण नहीं किया। अपने को ईश्वर समझकर वह पूर्ण संतुष्ट हो गया; उसने 'आत्मा' शब्द से देह समझा। परंतु देवता का स्वभाव अपेक्षाकृत पवित्र था। वह भी पहले इस भ्रम में पड़े कि यह देह ही ब्रह्म है, इसलिए इसे स्वस्थ व सबल रखना, सुंदर वस्त्रादि पहनना और सब प्रकार के दैहिक सुखों का भोग करना ही कर्तव्य है। परंतु कुछ दिनों बाद उन्हें यह बोध होने लगा कि गुरु के उपदेश का अर्थ यह नहीं हो सकता कि देह ही आत्मा है; वरन इससे भी श्रेष्ठ कुछ अवश्य है। उन्होंने गुरु के निकट आकर पूछा, 'आपके वाक्य का क्या यह तात्पर्य है कि देह ही आत्मा है? परंतु यह कैसे हो सकता है? सभी शरीर नष्ट होते हैं, पर आत्मा तो अविनाशी है।' आचार्य ने कहा, 'तुम स्वयं इसका निर्णय करो, तुम वही हो-तत्वमसि।' देवता ने सोचा, शरीर में क्रियाशील जो प्राण हैं, शायद उनको लक्ष्य करके गुरु जी ने पूर्वोक्त उपदेश दिया था। वह वापस चले गए। परंतु शीघ्र ही देखा कि भोजन करने पर प्राण तेजस्वी रहते हैं और न करने पर मुरझाने लगते हैं। वह पुन: गुरु के पास आए और कहा, 'गुरुदेव, आपने क्या प्राणों को आत्मा कहा है?' गुरु ने फिर दोहराया, 'स्वयं इसका निर्णय करो, तुम वही हो।' शिष्य देवता ने सोचा, 'तो शायद मन ही आत्मा हो।' किंतु वह शीघ्र ही समझ गए कि मन इतना परिवर्तनशील है कि वह कभी आत्मा नहीं हो सकता। वह पुन: गुरु के पास पहुँचे, 'मन आत्मा है, ऐसा तो मुझे नहीं जान पड़ता। आपने क्या ऐसा ही उपदेश दिया है?' गुरु ने कहा, 'तुम्हीं वह हो, तुम स्वयं इसका निर्णय करो।' देव फिर लौट गए, तब उनको यह ज्ञान हुआ, 'मैं समस्त मनोवृत्तियों से परे एकमेवाद्वितीय आत्मा हूँ। मेरा जन्म नहीं, मेरी मृत्यु नहीं। मैं अनादि हूँ। आत्मा शरीर या मन नहीं, वह तो इन सबसे परे है।' इस प्रकार वह देवता तो ज्ञानप्रसूत आनंद से तृप्त हो गए, पर उस असुर को सत्य-लाभ नहीं हुआ, क्योंकि उसकी देह में आसक्ति थी। कलयुग में देवता और असुर एक ही शरीर में रहते हैं अत: अपने देवता को जगाइये यह देवता कौन है जो हमारे भीतर हैं। यह हमारी चेतना ही है। अत: हमें सदैव हमारी चेतना को जागृत करने का प्रयास करना चाहिये और चेतना को जागृत करने के लिये। योग का सहारा लेना होगा। योग की ऐसी अद्भुत शक्ति है कि बहुत थोड़ी मात्रा में भी उसका अभ्यास करने पर उसका बहुत अधिक फल प्राप्त होता है। इससे किसी का अनिष्ट नहीं होता, वरन् इससे सबका उपकार ही होता है। पहले तो इससे अनावश्यक उत्तेजना शांत हो जाएगी, मन शांत भाव धारण करेगा और समस्त विषयों को स्पष्ट रूप से देखने-समझने की शक्ति आएगी। योगाभ्यास करने से जो चिह्न योगियों में प्रकट होते हैं, देह की स्वस्थता उनमें प्रथम है। इससे स्वर भी मधुर हो जाएगा और स्वर में जो कुछ दोष है, सब निकल जाएगा। जो लोग बहुत अधिक साधना करते हैं, उनमें और भी दूसरे लक्षण प्रकट होते हैैं। मन को एकाग्र करना आरंभ करने पर पायेंगे कि एक सामान्य पिन गिरने पर भी ऐसा मालूम होगा मानो मस्तिष्क से वज्र पार हो गया। इंद्रिय तंत्र जितने सूक्ष्म होते जाते हैं, अनुभूति भी उतनी ही सूक्ष्म होती जाती हैै। इसलिए शुक्ति (सीप) के समान बनो! भारतवर्ष में एक सुुंदर किंवदंती प्रचलित है। वह यह है कि आकाश में स्वाति नक्षत्र के तुंगस्थ रहते यदि पानी गिरे और उसकी एक बूंद सीपी में चली जाए, तो वह मोती बन जाती है। सीपियों को यह मालूम है, अतएव जब यह नक्षत्र उदित होता है, तो सीपियाँ पानी की ऊपरी सतह पर आ जाती हैं, और उस समय की एक अनमोल बूंद की प्रतीक्षा करती रहती हैं। जैसे ही एक बूंद पानी उनके पेट में जाता है, वैसे ही उस जलकण को लेकर अपना मुंह बंद करके वे समुद्र के अथाह गर्भ में चली जाती हैं, और वहाँ बड़े धैर्य के साथ उनसे मोती तैयार करने के प्रयत्न में लग जाती हैं। हमें भी उन सीपियों के समान बनना होगा। पहले सुनना होगा, फिर समझना होगा, अंत में बाहरी संसार से अपनी दृष्टि बिल्कुल हटाकर, सब प्रकार की विक्षेपकारी बातों से दूर रहकर, अंतर्निहित सत्य तत्व के विकास के लिए प्रयत्न करना होगा। एक भाव को नया कहकर ग्रहण करके, उसकी नवीनता चली जाने पर फिर किसी दूसरे नए भाव का आश्रय लेना, इस प्रकार बारंबार करने से तो हमारी सारी शक्ति ही इधर-उधर बिखर जाएगी। एक भाव को पकड़ो, उसी को लेकर रहो। उसका अंत देखे बिना उसे मत छोड़ो। जो एक भाव लेकर उसी में मत्त रह सकते हैं, उन्हीं के हृदय में सत्य तत्व का उन्मेष होता है। अत: "भावातीत ध्यान-योग" का प्रतिदिन नियमित प्रात: एवं संध्या को 15 से 20 मिनट का अभ्यास आपको जीवन में आनंद को चिरस्थाई बनायेगा।
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