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चेतना ही जीवन है

चेतना ही जीवन है

चेतना ही जीवन है  08/07/2025 12:25:08 PM   चेतना ही जीवन है   administrator

जीवन-शैली अव्यवस्थित व चेतना विहीन होने के कारण प्राय: लोग कार्य को कल पर टालने के अभ्यस्त हो जाते हैं, किंतु कल के लिए जीवन को स्थगित करने से बड़ी दूसरी कोई गलती नहीं, क्योंकि कल जीवन नहीं, मृृत्यु है। एक महोदय कंजूस थे, उन्होंने स्वयं को जीवन से वंचित करके तीन लाख रुपये बचाये थे। उन्होंने सोचा था कि जीवन के अंतिम समय में वह इस बचत से जीवन का आनंद उठाएँगे। यह भी आश्चर्य जनक है कि हम सभी कितना एक जैसे सोचते हैं या संभवत: हम किंचित मात्र भी नहीं सोचते। वर्तमान जीवन का आनंद लेने के स्थान पर वह कंजूस महोदय पैसे जमा किए जा रहे थे। एक रात यमदूत ने उनके द्वार पर दस्तक दी। वह अभी भी कल के लिए जीवन को स्थगित कर रहे थे और मृृत्यु आ गई। कंजूस महोदय यमदूत को कम से कम एक और दिन जीने देने के लिए मनाने का प्रयास करने लगे, किंतु यमदूत उन्हें सुनने को बिल्कुल तैयार न थे। उन्होंने उस कंजूस महोदय से कहा, ‘जो जीना चाहता है, वह आज में रहता है। जीने के लिए आज पर्याप्त है। हाँ यह उन लोगों के लिए पर्याप्त नहीं है, जो मात्र मरना चाहते हैं। वे सदैव कल के लिए जीते रहते हैं और कल में ही रहते हैं।’ कोई और मार्ग न देखकर कंजूस महोदय अपना समस्त संचित धन निकाल ले आये और उसे यमदूत को देते हुए कहा, ‘यह मेरा सम्पूर्ण जीवन है। इसे ले लें और मुझे जीने के लिए मात्र एक और दिन अवश्य दें।’ किंतु यमदूत राजी नहीं हुए। आप जीवन को अपने से दूर कर सकते हैं, मृृत्यु को नहीं। अंतत: कंजूस महोदय ने कहा, ‘कम से कम मुझे इतना समय तो दें, जिससे मैं उन लोगों के लिए एक संदेश लिख सकूँ, जो मेरे समान मृृत्यु की ओर बढ़ रहे हैं?' यमदूत ने कहा- ‘आप ऐसा कर सकते हैं, किंतु कोई आपके संदेश को पढ़ने वाला नहीं, यहाँ तक कि अगर कोई इसे पढ़ भी ले, तो इसको समझने वाला नहीं और अगर कोई समझ भी लेता है, तो इसको जीने वाला नहीं।’ फिर भी, कंजूस महोदय ने अपने रक्त से यह संदेश लिखा: ‘मित्रों! जीवन अनमोल है। इसका प्रत्येक पल अद्वितीय है। मैं इन तीन लाख रुपयों में इसका एक घंटा भी खरीदने में सक्षम नहीं हूँ। यही समय है, कल के लिए आज जीना स्थगित न करें, क्योंकि जीवन को स्थगित करके मैंने मृृत्यु के अतिरिक्त कुछ भी नहीं प्राप्त किया है।’इस संदेश को लिखे जाने के बाद से अब तक अनगिनत युग बीत चुके हैं। किंतु कोई इसे कभी नहीं पढ़ता, कोई भी इसे नहीं समझता और इसको जीने की तो बात ही छोड़ दीजिए। लोग जीवनपर्यंत, अपने-अपने कार्य क्षेत्र में व्यस्त या कहिए कि उलझे हुए रहते हैं। इस बीच उन्हें यह सोचने का समय और विचार नहीं आता है कि अब तक हमने जीवन में क्या खोया और क्या पाया। जब वे पारिवारिक या व्यावसायिक संसार से मुक्त होते हैं और कभी शांति से बैठकर सूची बनाते हैं, तब पाते हैं कि इतनी भागदौड़ के बाद अंतत: हमने सच में जीवन में बहुत कुछ पाया तो काफी कुछ खोया था। बहुत कुछ पाने की आस में जीवन बस आर्थिक जोड़-घटाव में ही फँसा रह जाता है। मनुष्य वास्तव में, माने या न माने तनिक स्वार्थी तो होता है। दूसरों की सफलता में कितने लोग सच्चे मन से प्रसन्न हो पाते हैं तथा कितने आशीर्वाद देकर बडे बन जाते हैं? हर कोई अधिक और अधिक पाना चाहता है, पर पाएगा तो उतना ही जितना उसकी झोली में समाएगा। इस ‘और-और’की प्रक्रिया में हम बहुत कुछ खोते जाते हैं। वंचितों की सहायता कर उनके चेहरों पर क्षणिक दीप्ति हमें संतुष्टि से भर देती है। वृद्ध और असहाय की सेवा प्रसन्नता का अनुभव अवश्य देती है। सच्चे मन से स्वीकारें तो यही ईश्वर की अर्चना है। भारत की अवधारणा ‘वसुधैव कुटुंबकम्’है। ऐसे में देखें तो विश्व में कहीं भी युद्ध हो, उससे विनाश के अतिरिक्त कुछ दृष्टिगत नहीं होता। इसका परिणाम मात्र दुर्दशा, व्याधि और विलाप के रूप में सामने आता है। आम आदमी यह समझ ही नहीं पाता कि ऐसी विभीषिका में किसने क्या खोया, क्या पाया? दूर क्यों जाएँ? आज विश्व में कुछ लोगों के वीभत्स कृत्य ने समाज को आक्रोश, घृृणा, विलाप और लाचारी से घेर लिया है, इसे खोकर, किसने क्या पाया। वहीं कोई बिना संघर्ष सब कुछ पा जाता है और कोई समझौते करने में ही कितना कुछ खोता जाता है। तुलसीदास जी ने बहुत पहले ही लिख दिया कि ‘जाके प्रभु दारुन दु:ख दैही, ताकी मति पहले हर लेही,’ अर्थात् परमपिता परमेश्वर जब आपको दु:ख देना चाहता है तो चेतनाहीन कर देता है। अत: सच्चिदानंद भगवान की कृपा के लिये सदैव प्रयासरत रहना चाहिए और स्वयं के भीतर चेतना को जागृत करने का नियमित अभ्यास करते रहना चाहिए। सदैव कुछ रुक कर, ठहर कर अपने भूतकाल का अवलोकन करके वर्तमान परिस्थितियों पर उसके प्रभाव का विश्लेषण करना होगा, क्योंकि आपका वर्तमान आपके भूतकाल में किये प्रयासों का परिणाम है और आपका भविष्य भी वर्तमान के लिये जाने वाले कार्यों पर ही आधारित है। अत: सदैव अत्यधिक ‘‘माया-मोह’’का त्याग कर अपने जीवन को आनंद से सराबोर कीजिए, वह आपके जन्म से मृत्यु के बीच आपके जीवन का आपका सहयात्री है।


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